पाठकों “जीवन जीने की कला” नामक शीर्षक के अंतर्गत एक कहानी लिख रहा हूं। यह कहानी के जो किरदार है वह आपको अपने आसपास कहीं भी मिल जाएंगे। यह कहानी काल्पनिक होते हुए भी सत्य महसूस होगी। क्योंकि यह कहानी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। हमारी कहानियों को प्रोत्साहित करने के लिए मार्मिक धारा न्यूज़पेपर आपका आभारी है।
मैंने बचपन में लोगों से सुना था कि “जिंदगी चार दिन की है।लेकिन समझ में नहीं आ रहा था। आज उम्र का पड़ाव जैसे से बढ़ रहा है। वैसे वैसे पता चल रहा है कि वास्तविकता में जिंदगी चार दिन की है।”ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं? क्योंकि हमारी कहानी का इससे संबंध है इसलिए मैं आपको बता रहा हूं।
मित्रों, मैं कॉलेज में पढ़ता था। हमारे घर के पास है एक अंकल रहते थे। जिनकी उम्र 61 वर्ष के लगभग थी। उनका नाम राधारमण था। वह एक शिक्षक के पद से रिटायर हो चुके थे। उनकी खासियत थी कि वह अपने घर के बाहर अखबार या किताब लेकर बैठे हुए उसे पढ़ते रहते थे तथा आने जाने वालों से “राम राम” कहते थे। वह अपने से छोटे या बड़े दोनों से ही “राम राम” कहते थे। लोग भी उसका उत्तर देते थे। हम भी जब उनके घर के सामने से गुजरते थे। तो हमसे भी “राम-राम” करते थे। हम भी उसका जवाब उनको देते थे। कॉलेज पूरा होने के बाद मैं जयपुर आकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा था। कई बार में निराश हो जाता था और घर आता था तो मैं उनसे मिलकर जरूर आता था। क्योंकि उनसे बातें कर मुझे बड़ा साहस मिलता था।
एक बार मैं घर आया तो मैंने सोचा कि बहुत दिन हो गए हैं। मुझे उनसे मिलकर आना चाहिए। मैं जब उनसे मिलने गया। उस समय सुबह का समय था तो मैंने देखा कि वह बहुत उदास थे। मैंने कहा–
हर्ष–नमस्ते, अंकल जी।
राधारमण—नमस्ते बेटा, आओ बैठो ।
हर्ष—और अंकल बताइए। आपका स्वास्थ्य कैसा है? तथा आप के हाल-चाल कैसे हैं?
राधारमण–हालचाल का तो क्या बताऊं 70 साल का हो चुका हूं। (इस समय जब मैं बात करा था उनकी उम्र 70 की थी) शरीर धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है। शरीर की कमजोरी के कारण चिंता ग्रस्त रहता हूं। इसलिए अपने आप को किसी भी कार्य में व्यस्त रखने की कोशिश करता हूं।
हर्ष–अरे अंकल,आप जैसा विद्वान और शिक्षक ऐसी निराशा की बातें करेगा तो हम जैसों का क्या हाल होगा? आपके चेहरे की मुस्कान से हम अपने आप को खुशहाल समझते हैं।
राधारमण—बेटा, कुछ बातें इस कारण निराश हूं।
हर्ष—अंकल आप मुझसे कह सकते हैं।
राधारमण—बेटा, मेरे दो बच्चे हैं। मेरा छोटा बेटा एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और उसकी पत्नी भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह जयपुर में रहता है। दोनों लाखों में रुपए कमाते हैं। तथा मेरा बड़ा बेटा गांव में खेती करता है। उसके बच्चे यहां भरतपुर में पढ़ाई कर रहे हैं। मैं भी कभी-कभी यहां आता हूं। जब मैं नौकरी में था तब तो गांव में शनिवार रविवार को जाता था तथा बीच में भी गांव चला जाता था। लेकिन अब मेरी ऐसी अवस्था नहीं है। इसलिए महीने में 2 या 4 दिन ही भरतपुर आता हूं। बाकी समय तो गांव में ही रहता हूं। मेरा छोटा बच्चा है जो कि सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह जयपुर रहता है। छोटा बच्चा शुरू से ही होशियार था। मुझे उस पर बहुत गर्व है तथा उसका स्वभाव भी बहुत अच्छा है। मैंने सोचा कि बुढ़ापे में मैं उसके पास ही जाकर ही रहूंगा। बड़े बेटे पर मेरा थोड़ा कम स्नेह था।क्योंकि मैं उसे भी अच्छा पढ़ाना चाहता था लेकिन उसका पढ़ाई में मन नहीं लगता था। इसलिए वह गांव में खेती कर रहा है।
हर्ष–तो इसमें समस्या कहां है? यदि आप अपने जयपुर वाले बेटे के पास रहना चाहते हैं तो उसके पास चले जाइए। मेरे साथ चलना मैं भी कल ही जा रहा हूं।
राधारमण—बेटा, अभी 15 दिन मैं रह कर आया हूं।
हर्ष–15 दिन रहकर वापस क्यों आ गए? अच्छा बड़े बेटे की याद आ रही होगी। इसलिए वापस आ गए। इसमें कौन सी बड़ी बात है? दोबारा जयपुर चले जाओ।
राधारमण—नहीं, अब दोबारा नहीं जाना।
हर्ष—क्या हुआ? क्या बेटे का व्यवहार अच्छा नहीं लगा?
राधारमण—नहीं, बेटे का व्यवहार तो बहुत अच्छा है।
हर्ष—फिर क्या हुआ?
राधारमण—वहां की जीवन शैली समझ में नहीं आई। वहां से यहां जब मैं आया तो मुझे यहां की सारी चीजें अच्छी लगने लगी।
हर्ष—क्यों वहां की जीवन शैली कैसी है? कृपया बताइए।
राधारमण—वहां मेरा जीवन एक कैदी जैसा था। आज का दौर मेरे समझ में नहीं आ रहा है?
हर्ष–कैसे समझ में नहीं आया?
राधारमण—सुनो बेटा, शुरू से ही बताता हूं। मुझे यहां से मेरे बेटे ने बस में मुझे बिठा दिया था। जब तक हम जयपुर से दूर थे। तब तक शुद्ध हवा तथा सड़क के दोनों ओर की हरियाली से मन आनंदित हो रहा था। जैसे ही जयपुर में हमारी बस ने प्रवेश किया। प्रदूषण ने हमारा स्वागत किया। हवा में अलग सी घुटन महसूस होने लगी। गाड़ियों का अत्यधिक शोर भी मुझे बेचैन कर रहा था। गाड़ियों के शोर से लग रहा था कि “कैसे यहां रहेंगे?”बस स्टैंड पर बस रुकी। मेरा बेटा मुझे लेने आया। वह मुझे अपनी कार से घर ले गया। घर पर मेरी काफी देखभाल की गई। लेकिन मेरा बेटा एक फ्लैट में रहता है। मैंने अपने बेटे से पूछा जिसका नाम नितिन है कि “बेटा फ्लैट में अपनी छत कहां है?”
नितिन-पापा जी फ्लैट में छत सबकी होती है। वह सबसे ऊंची फ्लोर पर है।
राधारमण—अब हम कौन सी फ्लोर पर हैं?
नितिन–पापा जी हम नवें फ्लोर पर हैं।
राधारमण–बेटा, जमीन से जुड़े आदमी हैं। वैसे ही तू इतना ऊंचा ले आया अभी कितनी ऊपर छत है?
नितिन—पापा अपना फ्लोर नवी नंबर पर तथा छत्त 14वे नंबर पर है।
राधारमण—मुझे तो खिड़की में से देखने में भी डर लग रहा है। (पता नहीं यहां कैसे रह पाएंगे ऐसा मैंने मन में सोचा)
(दूसरे दिन दोनों पति पत्नी अपने नौकरी पर चले गए और मेरे लिए नाश्ता और खाना दोनों बना कर चले गए। और उस समय ना तो मेरा नाश्ते का समय था और ना ही खाने का था। बेटा मुझे पुरानी यादें ताजा हो गई। मैं हमेशा गर्म खाना खाता था।अगर मेरी पत्नी मुझे बनाकर रख जाती तो मैं उससे लड़ता था और नाराजगी में खाना नहीं खाता था। इसे बहुत बुरा भला कहता था। वही स्थिति जब मैं रिटायर होने के बाद गांव में गया तो अपने बेटे के पास रहता था।उसकी पत्नी कभी खाने में देर कर दी या ठंडा खाना देती तो मैं अपने बेटे से बुरा भला कहता था। इन सब बातों को याद करके मुझे बहुत दुख हुआ । नाश्ता करने के बाद मैं घर में पूरे दिन पडा रहा। दूसरे दिन मैंने अपने बेटे से कहा, वह मुझे पार्क ले गया। तीसरे दिन में अकेले पार्क जाने लगा। लेकिन पार्क में कोई भी मुझसे बातें करने को तैयार नहीं था। गांव में घर से बाहर निकलने पर सभी से राम-राम होती थी। कहीं पर भी बैठ जाते थे। पूरा दिन कैसे निकल जाता पता ही नहीं चलता था? जबकि फ्लैट में पूरे दिन घर में घुटता रहता था। अब मुझे गांव की हर बात अच्छी लगने लगी। मैं परेशान सा होने लगा । मेरे बेटे ने मुझे परेशान देखकर जिसकी शनिवार और रविवार को छुट्टी होती थी। उसने मुझसे कहा,”पिताजी छुट्टी में हम घूमने चलेंगे” मैंने कहा ठीक है।
हर्ष—शनिवार और रविवार घूमने जाने से तो आपका मन लग गया होगा।
राधारमण—(बड़ी उदासी से बोलें) कहां मन लगा? मुझे एक बड़े मंदिर में ले गए। मंदिर में इतनी भीड़ थी। कि मैं 1 सेकंड की भगवान के दर्शन कर पाया जबकि गांव में मैं कई घंटों तक मंदिर में बैठा रहता था। फिर मैंने अपने बेटे से कहा,”मुझे एक कप चाय पिला दे।”क्योंकि घर से दर्शन करने में 4 घंटे का समय हो गया था।”4 घंटे में गांव में मैं 8 कप चाय पी लेता था। इसलिए मैंने अपने बेटे से कहा। बेटा मुझे बहुत बड़े होटल में ले गया। वह मुझे चाय पिलाई। उस चाय में दूध की अत्यधिक कमी थी इसलिए मुझे अच्छी नहीं लगी। उसका स्वाद मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। जैसे ही हमने चाय पी। उसका बिल आया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। तीन कप चाय का बिल ₹1500 था। यानी एक कप चाय ₹500 की थी। यह सुनकर मैंने अपने बेटे से कहा,”इतनी गंदी चाय ₹500 की है। हमारे गांव में किसी के घर में बैठो तो इससे बढ़िया चाय बन कर आती है।”नितिन ने समझाया।
नितिन—पापा यह बहुत बड़ा होटल है यहां चाय की रेट इतनी ही है।
राधारमण—बेटा बड़े शहर का रहस्य समझ में आया। जितनी तनख्वाह तुम्हें मिलती है। वह इस फिजूलखर्चों में चली आती है। हमारी नौकरी लगी थी हमें पहला वेतन ₹500 का मिला था और आज हम ₹500 की एक कप चाय पीकर आए हैं। दर्द इस बात का है की चाय में कोई दम नहीं था। इसके बाद हम खाना खाने गए वहां भी वही स्थिति हुई तथा खाने में गांव जैसा स्वाद भी नहीं आया। घर पर मैंने छाछ की इच्छा की वह मुझे सबसे खराब और पैसे से मिली। जबकि मेरे गांव में छाछ की कोई वैल्यू नहीं है। शहर में देखा हर चीज का मूल्य देना पड़ता है। 2 सप्ताह ही मुझे बहुत लंबे लगने लगे। मैं शुद्ध हवा के लिए तरस गया। चारों तरफ प्रदूषण, प्रदूषित हवा इस सब से परेशान होकर मैंने गांव जाने का फैसला लिया। मेरे बेटे के बहुत मना करने पर भी मैं नहीं माना वह बोला।
नितिन–पिताजी, क्या बात है? क्या आप हमसे नाराज हैं? यह हमारी देखभाल में कोई कमी रह गई है? आप कहो तो मैं एक और नौकर आपके पूरे दिन की देखभाल के लिए लगा दूं।(ऐसा कहकर उसकी आंखों में आंसू आ गए)
राधारमण—बेटा परेशान मत हो, तेरी देखभाल में कोई कमी नहीं है। लेकिन मेरा मन यहां नहीं लग रहा है। तू चाहता है कि मैं 10 साल और जियो तो शहर में मैं 5 साल भी नहीं जी पाऊंगा। यदि तू मुझे रुकेगा तो मैं रुक जाऊंगा लेकिन मेरा मन नहीं लगेगा। इसलिए बेटा मुझे यहां से खुशी खुशी विदा कर दो क्योंकि मैं गांव में रहना चाहता हूं।
(ऐसा सुनकर मेरे बेटे ने मुझे रोका नहीं और मुझे बस में बैठा दिया)
बस में बैठ कर मैं सोचने लगा। अच्छा हुआ मैंने अपने बड़े बेटे को शहर नहीं भेजा। वरना वह भी शहर आ जाता तो मैं फिर कहां जाता । मेरा बड़ा बेटा इतना ध्यान रखता है फिर भी मैं उसे छोटे बेटे से तुलना करता था। मैंने महसूस किया गांव में सब कुछ है। शुद्ध हवा, शुद्ध खाना, सामाजिकता फिर भी हम शहर की ओर पलायन करते हैं। शहर में यदि ज्यादा कमाते हैं। तो खर्चे भी ज्यादा होते हैं। गांव की संस्कृति शहर की संस्कृति से बहुत अच्छी है। फिर भी हम शहर की ओर जाते हैं।
यदि हम अपने गांव की संस्कृति को गंदी राजनीति से बचा लें और आधारभूत सुविधाओं में सुधार कर ले। तो गांव एक स्वर्ग के समान है।
इसलिए कहा गया है,”भारत गांवों में बसता है।”
हर्षवर्धन शर्मा (मार्मिक धारा)