जीवन जीने की कला नामक शीर्षक के अंतर्गत पाठकों मैं आपको एक नई तथा सच्ची कहानी लिखने जा रहा हूं। यह कहानी जीवन के सही मूल्यों के बारे में हमें बताती है। इस कहानी का उद्देश्य किसी रिश्ते को नीचा दिखाना नहीं है। हमारा कहानी लिखने का मात्र इतना सा उद्देश्य है कि हम लोगों के जीवन से नीरसता दूर कर सकें।
पिछली कहानियों में मैं आपको बता चुका हूं कि मैं एक प्राध्यापक हूं। यह कहानी 2013 की है। मैं जयपुर में कोचिंग क्लास एवं एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था। तभी मैंने सीकर जिले की एक नामी कोचिंग में इंटरव्यू दिया तथा उसमें मेरा सिलेक्शन भी हो गया। कोचिंग में सैलरी पैकेज को देखकर मैंने इंटरव्यू दिया था। लेकिन जब जयपुर से बाहर जाने का समय आया। अर्थात वह दिन जिस दिन मुझे सीकर जाना था। तब मेरा मन जयपुर से बाहर जाने का नहीं किया। मेरा बच्चा जो की मात्र 2 साल का था। लेकिन हम जॉइंट फैमिली में रहते थे और मैं अपने दोनों भाइयों के साथ रहता था। मम्मी पापा उस समय भरतपुर में सरकारी नौकरी में कार्यरत थे। मेरे उदास चेहरे को देखकर सब ने मुझे समझाया कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता। इसलिए ऐसे सैलरी पैकेज को छोड़ना नहीं चाहिए। परिस्थितियों को समझते हुए तथा पैकेज को ध्यान में रखते हुए मैंने सीकर जिले की ओर प्रस्थान कर दिया।
मैं कोचिंग में पहुंचा। कोचिंग वालों ने मुझे एक पास ही गेस्ट हाउस टाइप मकान में रख दिया। उस बिल्डिंग में नीचे रेस्टोरेंट्स चलता था। ऊपर की तरफ कुछ कमरे में महीनों के हिसाब से किराए पर दिए जाते थे। यानी वहां पीजी सिस्टम था। तथा चाय नाश्ता एवं खाना सभी नीचे रेस्टोरेंट्स से आता था।
मुझे अभी 2 दिन ही हुए थे। उस छोटे रेस्टोरेंट में तीन नौकर थे। एक जो मुख्य रसोईया था। वह मुझसे मिलने मेरे कमरे में आया। उसका नाम महेंद्र था। वह मेरे पास आया और मुझसे बोला
महेंद्र —–सर, नमस्ते।
हर्षवर्धन—-नमस्ते। लेकिन मैं आपको पहचाना नहीं, क्या आप कोचिंग से आए हैं?
महेंद्र—नहीं सर, आप मुझे पहचानते नहीं है। मैं नीचे रेस्टोरेंट में खाना बनाता हूं। आज कुछ बच्चे आपकी कोचिंग से आए थे। उन्होंने आपकी बहुत प्रशंसा की तथा मुझसे कह कर गए कि सर का विशेष ध्यान रखना। उनको अच्छा खाना खिलाना।
(यह बात सुनकर मुझे सीकर के विद्यार्थियों की एक बात बहुत अच्छी लगी। सीकर में पूरे राजस्थान के बच्चे पढ़ते थे। अधिकतर बच्चे गांव के रहने वाले थे। मेरा पीजी कोचिंग से मात्र 1 किलोमीटर दूर था। रास्ते में कोई भी विद्यार्थी मिल जाता है चाहे वह लड़का हो या लड़की मेरे बैग को मुझसे ले लेते थे। मेरा अभिवादन कर। मेरे बैग को स्वयं लेकर चलते थे। कोचिंग में बहुत सारे चपरासी थे। लेकिन पढ़ाते हुए कभी मुझे पानी की आवश्यकता होती थी। विद्यार्थी या तो अपनी बोतल या पानी लाने के लिए भागते थे। ऐसा गुरु के प्रति समर्पण सर्वाधिक मैंने सीकर में ही देखा। ऐसा नहीं कि जयपुर में या किसी अन्य जगह नहीं था ऐसा। लेकिन सीकर में अत्यधिक मात्रा में था। मैंने अपने जीवन में यह देखा भी जो गुरु के प्रति प्रेम रखता है उसको गुरु का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। जीवन में उन लोगों ने ही सफलता प्राप्त की है। ऐसा मेरा अनुभव रहा है।)
महेंद्र—सर, जब आप आए थे तो बहुत अधिक उदास दिख रहे थे। लेकिन अब आप ठीक हैं।
हर्षवर्धन—हां यार, बच्चे और पत्नी को पहली बार छोड़ कर आया हूं। इसलिए बच्चे की याद आ रही है। लेकिन दिन भर तो कोचिंग में मन लग जाता है। शाम को बच्चे से फोन पर बात कर लेते हैं। चल, यार हमारी बात छोड़ो अपनी बात बताओ। तुम कहां के रहने वाले हो?
महिंद्र—सर मुख्य बात तो मैं आपको पता नहीं भूल गया।
हर्षवर्धन—वह क्या?
महेंद्र—सर मुझे आपके विद्यार्थी ने बताया था कि आप रहने वाले भरतपुर के हैं और मैं भी भरतपुर का ही रहने वाला हूं लेकिन 10 साल से सीकर में रह रहा हूं।
(जैसे ही उसने भरतपुर का रहने वाला अपने आपको बताया हमें इतनी खुशी हुई जितनी खुशी लंका में हनुमान के आने पर सीता जी को भी नहीं हुई थी। ऐसा पहली बार सीकर में ही नहीं हुआ। जयपुर में भी कोई मुझे भरतपुर का मिल जाता तो मुझे ऐसा लगता कि शायद वह भगवान का देवदूत है। तथा मेरा भरतपुर का प्रेम उमड़ जाता। भरतपुर वालों की यही समस्या है। चलिए अब कहानी पर आते हैं।) भरतपुर में कौन सी जगह रहते हो?
महेंद्र—सर, मैं भरतपुर की नगर तहसील का रहने वाला हूं। लेकिन 10 साल से मैं भी एक या 2 दिन ही घर गया हूं।
(हमारी आंखों में चमक आ गई। उसी चमक के साथ हमने दूसरा सवाल पूछा)
हर्षवर्धन—क्यों, घरवालों से कभी मिलने का मन नहीं करता है। मुझे एक-दो दिन में ऐसा लगता है कि जैसे साल भर हो गया हो।
महेंद्र—सर, घरवालों से मिलने का मन तो करता है लेकिन परिस्थितियां कुछ बदल गई है।
हर्षवर्धन—ऐसी कैसी परिस्थितियां बदल गई कि तुम्हारा घर जाने का मन ही नहीं करता। अगर तुम चाहो तो मुझे बता सकते हो। ऐसा क्या कारण है?
महेंद्र—सर, अब आपको क्या बताऊं मैं बहुत दुखी हूं।
हर्षवर्धन—-अगर दुख है तो वह बताने से कम हो जाता है। अगर तुम्हें ठीक लगता है तो बताओ वरना तुम्हारी जैसी इच्छा।
महेंद्र—आप ठीक कह रहे हो सर,कि दुख बताने से कम हो जाता है। मैं आज आपको अपनी कहानी बताता हूं।
(कहानी बताने से पहले ही वह जोर जोर से रोने लगा। मैंने उसे पानी पिलाया। उसे चुप कराया और से कहा)
हर्षवर्धन—अगर तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा है तो मत बताओ।
महेंद्र—-नहीं सर ऐसी बात नहीं है। मेरा मन का बोझ हल्का हो जाएगा। सर मेरी उम्र जब 14 साल की थी तब मेरे माता-पिता की रोड एक्सीडेंट में मारे गए। जब तक मेरे बड़े भाई की शादी हो चुकी थी। तथा भैया की शादी के 3 साल हो चुके हैं। भैया भाभी के कोई बच्चा नहीं है। भैया भाभी ने मुझसे कहा था “मेरा तू ही बेटा है।”उन्होंने कहा हम तुझे कभी भी मां-बाप की कमी महसूस नहीं होने देंगे। वास्तव में ऐसा ही हुआ। अगले 5 साल तक भैया भाभी ने मुझे एक पुत्र की तरह ही मेरा पालन पोषण किया। 5 साल बाद भैया के पुत्र हुआ। जिस दिन उनके लड़का हुआ था। मैं बहुत खुश था। लेकिन मैंने देखा भैया भाभी के स्वभाव में एकदम बदलाव आ गया था। पहले भाभी के स्वभाव में बदलाव आया फिर धीरे-धीरे भैया के व्यवहार में भी बदलाव आना शुरू हो गया। मैं भैया भाभी को अपना सबकुछ मान चुका था। माता पिता की मृत्यु के बाद मैं उनको सब कुछ अर्थात मैंने उन्हें अपने माता पिता के रूप में ही देखा था।
उनके व्यवहार में आए बदलाव से मेरा मन बहुत दुखी हुआ। भाभी मुझसे बात बात पर नाराज होती थी। एक दिन भाभी मैं मुझ पर चोरी का इल्जाम लगा दिया। मैंने उनको बहुत कहा कि मैंने चोरी नहीं की है। भैया ने मुझे बेल्टों से मारा। मेरा मन इतना दुखी हुआ कि मैं घर छोड़कर सीकर आ गया। मैं बिना बताए घर से बाहर निकल गया था। मैंने किसी को बताया भी नहीं था। तथा मेरे भैया भाभी ने मुझे ढूंढने की कोशिश भी नहीं की। फिर 5 साल बाद एक दिन मैंने ही भैया को फोन किया। क्योंकि जो रिश्तो की परवाह करता है आखिर उसको ही झुकना पड़ता है। बस भाई का प्रेम मुझे आज भी दिखाई दिया। लेकिन एक माता-पिता वाला जो प्रेम होता है। शायद मैं उसे खो चुका था।
(ऐसा कहकर वे जोर जोर से रोने लगा। मैंने उसे चुप कराया है। पानी पिलाया)
हर्षवर्धन—लो पानी पियो और चुप हो जाओ।
महेंद्र—-आज मेरी उम्र 35 साल हो गई। मेरे माता-पिता होते तो मेरा ख्याल रखते। आज मेरी शादी हो चुकी होती। मेरा भी परिवार होता। मुझे भी मां बाप का प्यार प्राप्त होता।
(कुछ देर ठहर अपने आंसू पहुंचकर फिर वह बोला)
सर, एक बात कहना चाहता हूं। इस दुनिया में सबसे बड़ा प्रेम माता पिता का होता है। क्योंकि वह निस्वार्थ होता है। इस संसार में केवल मां बाप ही जीवन पर्यंत हमारी चिंता करते हैं। जिनके ऊपर मां-बाप का साया है। उनके जीवन में सब कुछ है। क्या करूं सर? इसलिए घर जाने का मन नहीं करता है। जिसके मां बाप नहीं है उसका सब कुछ लूट गया है।
(महेद्र की कहानी सुनकर मेरी आंखों में भी आंसू आ गए। मैं मन ही मन सोचने लगा कि मैं किस प्रकार इसकी मदद करूं? उस समय तो वह मेरे कमरे से चला गया। लेकिन मुझे एक सोच में डाल गया। मैंने निश्चय किया मैं कुछ प्रयास करूंगा।इसके भाई को इससे मिला दो। नगर में मेरा एक दोस्त रहता था। मैंने उससे बात की। उसको सारी कहानी बताई। महेद्र के भाई का फोन नंबर लिया। महिंद्र के भाई को मैंने समझाया कि इस समय महेंद्र को एक परिवार की आवश्यकता है। महेद्र के भाई के समझ में आ गई। उस दिन बाद महिंद्र के भाई ने अपनी पत्नी से भी मेरी बात कराई। मैंने उनको भी समझाया और वह मान गई। फिर एक दिन महिंद्र के भैया भाभी सीकर आए। महेद्र ने जब अपने भैया भाभी को देखा। वह खुशी से फूला नहीं समाया। भैया ने उसे गले लगा लिया। महेंद्र रोने लगा। तो भैया बोलो।)
महेद्र का भाई—- महेद्र तू आज भी मेरा बेटा ही है। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मुझे माफ कर दे। मैं अपना वादा नहीं निभा पाया जो मैंने अपने माता-पिता को दिया था। कि तेरा मैं ध्यान माता पिता की तरह रखूंगा। सर आज के बाद कोई शिकायत नहीं आएगी। पूरी कोशिश करूंगा इसका जीवन अच्छा हो जाए। मै इसका पूरा ध्यान रखूंगा। आपने मेरी आंखें खोल दी इसका बहुत-बहुत धन्यवाद।
(महेंद्र ने मेरे पैर छुए और उसने कहा)
महेंद्र—-सर आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यदि मैं अपना दुख आपको को नहीं बताता। तो शायद ऐसा नहीं होता। इसलिए सभी को अपने दुखों को एक दूसरे से साझा करना चाहिए। पता नहीं कब ईश्वर की कृपा हो और आपका दुख खत्म हो जाए।
हर्षवर्धन— दुख बताने से ही कम होते हैं। ऐसा मेरा सोचना है।
हर्षवर्धन शर्मा (मार्मिक धारा)